
काकी से की प्रार्थना, नवा-नवाकर शीश,
प्रिये, हमें दे दीजिए रुपये चार सौ बीस।
रुपये चार सौ बीस, आज जुआ खेलेंगे,
यह संख्या बलवान, शर्तिया हम जीतेंगे।
लगा दिए वे रुपये, एक दाव पर सारे,
दुगुने आए लौट, हौसले बढ़े हमारे।
साहस आगे बढ़ा, दाँव-पर-दाँव लगाए,
हार गए सब, घर आए मुँह को लटकाए।
काकी बोलीं - क्या हुआ, कैसे बीती रात,
कितने आए जीतकर, सच-सच बोलो बात ?
सच-सच बोलो बात, सुनाया संकट उनको,
जीत भाड़ में गई, हार बैठे हम तुमको।
सुनकर देवी जी ने मारा एक ठहाका,
मुझे द्रौपदी समझा है क्या तुमने काका ?
घबराओ मत चिंता छोड़ो, पीओ-खाओ
जीत गए जो कौरव, उनके पते बताओ !
तन-मन व्याकुल हो रहा, क्या होगा रघुनाथ,
लेकर बेलन हाथ में, चलीं हमारे साथ।
चलीं हमारे साथ, देख बूढ़ी रणचंडी,
कौरव-दल की सारी जीत हो गई ठंढी।
दु:शासन जी बोले, क्षमा कीजिए हमको,
यह कलयुगी द्रौपदी, रहे मुबारक तुमको।
काकी बोलीं-यों नहिं पीछा छोड़ूँ भइए,
लौटाओ सब इनसे जीते हुए रुपइए।
~ काका हाथरसी
March 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh
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