मेरी कोशिश है कि-
नदी का बहना मुझमें हो।
तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें-
स्वर के विविध वितान तने हों
मीड़-मूर्च्छनाओं का-
उठना-गिरना मुझमें हो।
जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाए ख़ाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटॆं-
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ मगर घड़ियाल-
सभी का रहना मुझमें हो।
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें-
ले जाएँ पानी ऊपर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमें हो।
~ शिव बहादुर सिंह भदौरिया
Nov 20, 2013
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