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Friday, November 21, 2014

नदी का बहना मुझमें हो।



मेरी कोशिश है कि-
नदी का बहना मुझमें हो।

तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें-
स्वर के विविध वितान तने हों

मीड़-मूर्च्छनाओं का-
उठना-गिरना मुझमें हो।

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाए ख़ाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटॆं-
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी

मच्छ मगर घड़ियाल-
सभी का रहना मुझमें हो।

मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें-
ले जाएँ पानी ऊपर में

जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमें हो।

~ शिव बहादुर सिंह भदौरिया

   Nov 20, 2013

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